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सोमवार, 5 जून 2023

प्लास्टिक कुप्रबंधन से उपजी प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या का समाधान जरुरी

 विश्व पर्यावरण दिवस-2023 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

आज हम 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे है. संयुक्त राष्ट्र महासभा (1972) के आव्हान पर वर्ष 1974 से संसार के सभी देश प्रति वर्ष  5 जून को  विश्व पर्यावरण दिवस  के अवसर पर पर्यावरण संरक्षण से संबंधित जन जागरूकता अभियान  संचालित करते आ रहे है. इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस-2023 के मुख्य विषय के रूप में प्लास्टिक प्रदूषण का समाधान (बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन) रखा गया है, जो प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से उत्पन्न दुष्प्रभावों से मानव सभ्यता को बचाने के लिए एक विश्वव्यापी अभियान है आज से 115 वर्ष पूर्व बेल्जियम के रसायनज्ञ  श्रीमान लियो हेंड्रिक बैकलैंड द्वारा ईजाद किया गया प्लास्टिक आधुनिक युग में समूची मानव सभ्यता के लिए वरदान  साबित हुआ और आज विश्व के सभी देशों में जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक ने महत्वपूर्ण मुकाम हासिल कर लिया है.  वर्तमान समय में  जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का उपयोग किया जा रहा है और दिनों दिन प्लास्टिक उत्पादों की मांग निरंतर बढती जा रही है  

यह  कड़वा सच है कि प्लास्टिक के बिना वर्तमान मानव आबादी की जरूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता है अर्थात इसके बिना सुखद जीवन यापन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । कृषि क्षेत्र को समोंनत बनाने  में प्लास्टिक का महत्वपूर्ण योगदान है आज बूँद-बूँद सिंचाई, प्लास्टिक मल्च, अन्न भंडारण अथवा कृषि उत्पादों की पैकिंग, खाद्य प्रसंस्करण एवं फ़ूड पैकेजिंग  बिना प्लास्टिक के असंभव है इसलिए प्लास्टिक के उपयोग को नाकारा नहीं जा सकता है

इस प्रकार हम कह सकते है कि प्लास्टिक के उपयोग से नहीं बल्कि प्लास्टिक उत्पादों के गैर जिम्मेदारना निष्पादन अर्थात कुप्रबंधन  से  ही प्रदूषण (मृदा एवं जल प्रदुषण) की समस्या उत्पन्न हुई है, जो हमारे पर्यावरण और मानव समाज के लिए अभिशाप बनती जा रही है  प्लास्टिक प्रदूषण से होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के लिए सरकार नहीं हम खुद ही जिम्मेदार हैं। क्योंकि इसका उपयोग कर हम ही यत्र-तत्र फैंक देते है, जो उड़कर नालियों को जाम करता है सडक या गलियों में भोज्य पदार्थों में इस्तेमाल की गई पॉलीथिन  जानवर खाकर बीमार हो जाते है अथवा मर भी जाते है. बरसात में नदी-नालों में प्लास्टिक बहकर समुद्र को भी प्रदूषित कर रही है, जिससे समुद्री जीव जंतुओं का जीवन भी संकट में आ गया है दरअसल भारत ही नहीं बल्कि समूची दुनिया में प्लास्टिक के उपयोग से ही नहीं इसके कुप्रबन्धन के कारण प्लस्टिक प्रदूषण की समस्या बढती जा रही है प्लास्टिक का उपयोग करो और फेंकों (यूज एंड थ्रो) की हमारी  प्रवृति ने हमारी धरती, जल और वायू को प्रदूषित करने का कार्य किया है प्लास्टिक प्रदूषण को मात देने के लिए हम सब को मिलकर  यूज एंड थ्रो की प्रवृति पर तत्काल रोक लगाने के साथ-साथ प्लास्टिक के उपयोग को भी सीमित करना होगा   

वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की रिपोर्ट  मुताबिक अकेले भारत में प्रति वर्ष 56 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा पैदा होता है। पूरी दुनिया द्वारा  जितना कूड़ा सालाना समुद्र में प्रवाहित किया जाता है उसका 60 प्रतिशत हिस्सा अकेले भारत  द्वारा प्रवाहित किया जा रहा है। भारतीय प्रति दिन 15000 टन प्लास्टिक कचरें में फेंकते हैं। प्रतिवर्ष उत्पादित प्लास्टिक कचरे में से सर्वाधिक प्लास्टिक कचरा सिंगल यूज प्लास्टिक का ही होता है और ऐसे प्लास्टिक में से केवल 20 फीसदी प्लास्टिक ही रिसाइकल हो पाता है, करीब 39 फीसदी प्लास्टिक को जमीन के अंदर दबा  दिया जाता है, जिससे मृदा प्रदूषित होने के साथ-साथ गैर उपजाऊ होती जा रही है यह  कृषि भूमि और जैव विविधिता के लिए बेहद हानिकारक हो सकती है क्योंकि प्लास्टिक को अपघटित होने में 450 से 1000 वर्ष लग जाते हैं।  कुल प्लास्टिक का अमूमन  15 फीसदी  हिस्सा जलाकर नष्ट किया जाता है, जो पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है क्योंकि प्लास्टिक को जलाने की प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में कार्बन मोनोक्साइड तथा कार्बन डाईऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें वातावरण में उत्सर्जित हो रही है, जो मानव में  फेफड़ों के कैंसर व हृदय रोगों सहित कई बीमारियों का कारण बन रही हैं। एक किलो प्लास्टिक कचरा जलाने पर तीन किलो कार्बन डाईऑक्साइड गैस निकलती है,  जो न केवल ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने का कारण बन रही है

पर्यावरण दिवस के अवसर पर हम और आप भले ही  प्लास्टिक एवं इससे बने उत्पादों के उपयोग से उत्पन्न समस्याओं पर कितना भी चिंतन-मथन कर लें और इनका उपयोग न करने का संकल्प ले लेवें  अथवा हमारी सरकारें प्लास्टिक के उपयोग पर कितने भी प्रतिबंध लगा ले, लेकिन सच्चाई तो यही है कि बगैर किसी व्यवहारिक विकल्प के  प्लास्टिक को जन जीवन की दिनचर्या से दूर नहीं किया जा सकता है। वास्तव में प्लास्टिक उत्पादों के उचित रख रखाव और कुशल प्रबंधन के अभाव में ही प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। अतः पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर प्लास्टिक अपशिष्ट के हानिकारक प्रभावों को कम करने हेतु  प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन/निष्पादन की समुचित  व्यवस्था करना जरुरी है।

प्लास्टिक प्रदूषण को परास्त करने के लिए हमे चार आर (4 R) नियमों  अर्थात रिफ्यूज (इस्तेमाल न करना), रेड्युस (कम करना), रीयूज (पुनः उपयोग करना) और रीसायकल (पुनर्चक्रण करना) का पालन करना होगा । इसमें से पहले तीन नियम रेफ्यूज, रिड्यूज  और री-यूज करना हम सब और हमारे परिवार की जिम्मेदारी होना चाहिए. घर-घर से तथा गलियों से प्लास्टिक अपशिष्ट संग्रहण करने की जवाबदेही नगर निगम एवं ग्राम पंचायतों  की होना चाहिए. भारत सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के तहत देश के ज्यादातर राज्यों की नगर निकाय यह कार्य कर भी रही है. इस कार्य में और मुस्तैदी लाने की जरुरत है. चौथा आर-रीसाईंकल अर्थात पुनर्चक्रण योग्य प्लास्टिक को प्लास्टिक उत्पाद बनाने वालों को सौप दिया जाये और गैर पुनर्चक्रण योग्य प्लास्टिक अपशिष्ट सीमेंट इंडस्ट्री में प्रयोग किया जाय अथवा सडक निर्माण जैसे कार्यो में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसके अलावा  प्लास्टिक बैग, ग्लास, बोतल आदि के उपयोग और फेंकों  (यूज एंड थ्रो) प्रवृति पर लगाम लगाने अथवा पूर्णतः बैन करना भी आवश्यक है

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 73वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक  के उपयोग पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की अपील की थी। इसी तारतम्य में  भारत सरकार और  कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में प्रदूषण रोकने के लिए प्लास्टिक के बैग पर पहले से ही पूरी तरह से रोक लगा रखी है, लेकिन यह काफी नहीं है। कोई भी आंदोलन तभी सफल होता है, जब उसमें जनमन की भागीदारी हो। इसलिए प्लास्टिक  प्रदूषण से मुक्ति अर्थात पर्यावरण में प्लास्टिक के प्रवेश को नियंत्रित करने नगर एवं ग्राम पंचायत स्तर पर प्लास्टिक के उपयोग से होने वाले दुष्प्रभावों से बच्चो, महिलाओं एवं बच्चो को  अवगत कराते हुए   प्लास्टिक उपयोग को नकारने, कम करने या पुनः उपयोग करने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए  स्वच्छ गाँव-स्वच्छ शहर से ही स्वच्छ भारत की कल्पना साकार हो सकती हैइसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक को हर संभव तरीके से अपना सकारात्मक  सहयोग देने का संकल्प लेना चाहिए, तभी हमारा वर्तमान एवं भविष्य सुरक्षित रह सकता है।



मंगलवार, 21 मार्च 2023

विश्व वन दिवस-2023 :धरती करे पुकार-वृक्षों का उपकार-भूल गया संसार

 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

मानव आजीविका व पोषण से लेकर जैव विविधता व पर्यावरण तक, वनों की भूमिका सर्वव्यापी है, लेकिन पृथ्वी और मानव के स्वास्थ्य के लिए वनों की महत्वपूर्ण भूमिका है. जनसंख्या में वृद्धि, स्थानीय पर्यावरणीय कारक, कृषि भूमि के विकास, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, वनों एवं पेड़ों की अवैध कटाई, जंगलों में आग, कीट-रोग प्रकोप की वजह से वनों का क्षेत्र और पेड़ों की संख्या में निरंतर गिरावट बेहद चिंता का विषय है. इसलिए विश्व जगत में वन एवं पेड़ों के महत्व को प्रतिपादित करने और जन जाग्रति पैदा करने के उद्देश्य से  यूनाइटेड नेशन फोरम ऑन फॉरेस्ट्स  और खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा प्रति वर्ष 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस  मनाया जाता है। इस दिन का मुख्य उद्देश्य सभी प्रकार के वनों और पेड़ों  के महत्व के बारे में  जन जागरूकता बढ़ाना है। इस वर्ष अंतराष्ट्रीय वन दिवस की थीम वन और स्वास्थ्य निर्धारित की गई है. वनों के बगैर आज मानव समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। वन हमारे जीवन के लिए जरुरी शुद्ध हवा, निर्मल जल प्रदान करते है और जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने में सहायक होते है. वन न केवल मानव के लिए बल्कि  हमारी जैव विविधिता (पेड़-पौधे, पशु,पक्षी और सूक्ष्म जीव) भी पूर्णतः वनों पर आश्रित है.  


भारत की राष्ट्रीय वन नीति (1988) में देश के 33.3 प्रतिशत  भौगोलिक क्षेत्र को वन और वृक्ष आच्छादित रखने की परिकल्पना की गई है लेकिन भारतीय वन सर्वेक्षणद्वारा प्रकाशित भारत वन स्थिति रिपोर्ट (2021) के अनुसार भारत का वन क्षेत्र अब 7,13,789 वर्ग किलोमीटर है, यह देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.71% है जो वर्ष 2019 में 21.67% से अधिक है। भारत में प्रति व्यक्ति वन क्षेत्र 0.29 हेक्टेयर है. खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) द्वारा प्रत्येक पाँच वर्ष पर कराए जाने वाले वैश्विक वन संसाधन आकलन के अनुसार भारत में वैश्विक वन क्षेत्रफल का 2% मौजूद है और यह वन क्षेत्र के संबंध में विश्व के शीर्ष दस देशों में 10वें स्थान पर है। 20% वैश्विक वनावरण के साथ रूस इस सूची में शीर्ष पर है।क्षेत्रफल के हिसाब से, मध्य प्रदेश में देश का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है। इसके बाद अरुणाचल प्रदेशछत्तीसगढ़ओडिशा और महाराष्ट्र हैं। कुल भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में वन आवरण के मामले मेंशीर्ष पांच राज्य मिजोरम (84.53%), अरुणाचल प्रदेश (79.33%), मेघालय (76.00%), मणिपुर (74.34%) और नगालैंड (73.90%) हैं। अभी हाल ही में निर्वनीकरण एवं पेड़ो कि अंधाधुंध कटाई पर कुछ रोक जरुर लगी है और प्रति वर्ष बड़ी संख्या में वृक्षारोपण भी किया जा रहा है. दुर्भाग्य से जितने पेड़ लगाये जाते है, उनमें से 10-20 प्रतिशत पेड़ ही जीवित बच पाते है. अतः हम सब जिस प्रकार अपनी सेहत का ख्याल रखते है, उसी प्रकार से पेड़ पौधों का पोषण एवं संवर्धन करने की आवश्यकता है. वन और पेड़ पौधों से ही हम अपने स्वास्थ्य  और आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर कल की कल्पना कर सकते है.

अभी हम सब ने कोविड-19 के विश्वव्यापी कहर को झेला है. ऑक्सीजन की कमीं से करोड़ों लोगों को दम तोड़ते हुए देखा है.  जिंदा रहने के लिए वन हमें प्राणवायु और शुद्ध जल प्रदान करने के अलावा वन एवं उपवन हमें बहुमूल्य काष्ठ, वनोपज, औषधियां, खाद्य पदार्थ आदि देते है जिनके माध्यम से बहुसंख्यक आदिवासी एवं ग्रामीण परिवारों की रोजी रोटी कि व्यवस्था हो रही है. वन एवं वनोत्पाद भारत की अर्थव्यस्था में भी महत्वपूर्ण  भूमिका निभा रहे है. स्वस्थ और सुरक्षित वनों से ही स्वस्थ जीवन संभव है. इसलिए वनों के विनाश  और वन संसाधनों  के अति दोहन पर रोक लगाते हुए अधिक से अधिक वृक्षारोपण और उजड़े वनों में पेड़ों के प्रति रोपण एवं उनके संवर्धन पर ध्यान देना समय की मांग है.   


शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

नवग्रह वाटिका: पर्यावरण संरक्षण, सेहत, सुख, शांति और समृद्धि का साधन

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में सूर्य, चन्द्रमा, तारे, नदी, पेड़-पौधे, पशु एवं पक्षियों की पूजा- अर्चना करने का विशेष महत्व है पेड़-पौधों का धार्मिक, सामाजिक, पर्यावरण, वास्तु एवं आर्थिक महत्व से जुड़े तमाम पहलुओं से जुड़े तथ्य हमारे वैदिक ग्रन्थों में उपलब्ध है  सूर्य अथवा अन्य तारो के चारों तरफ जो खगोलीय पिंड चक्कर लगाते है, उन्हें गृह (प्लानेट) कहते है भारतीय ज्योतिष के अनुसार सूर्य,चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि राहु और केतु ये नव ग्रह हैं। इनमें प्रथम 7 तो पिण्डीय ग्रह हैं और अन्तिम दो राहु और केतु पिण्ड को छाया ग्रह माना गया हैं।  ये नौ ग्रह प्राकृतिक सम्पदा के पोषक ही नहीं, अपितु प्रकृति से तदात्मय स्थापित कर ये ग्रह अनेकानेक दोषों को दूर भी करते हैं। ग्रह पर्यावरण को संरक्षित करने में अपना अपूर्व योगदान करते हैं। इन सभी ग्रहों का प्रतिनिधित्व अलग-अलग पौधे-वनस्पतियाँ करती है और वास्तु एवं शास्त्र निर्दिष्ट पेड़-पौधों का रोपण करने से अनेक बाह्य-आन्तरिक पीड़ा व दोषों को दूर कर समृद्धि एवं स्थिरता की प्राप्ति की जा सकती है। शारीरिक कष्ट से मुक्ति एवं वास्तु की शुद्धता के लिए कुछ महत्वपूर्ण औषधियाँ निर्दिष्ट हैं, जिनका ज्योतिष में नवग्रह के प्रतिनिधि-रूप में स्थान प्राप्त है। वास्तुशास्त्र में 9 ग्रहों के प्रतिनिधि  वृक्ष-वनस्पतियों को नव गृहवाटिका के रूप में स्थापित किया जाता है

नवग्रह अनुसार वनस्पतियां:  यज्ञ द्वारा शान्ति के उपाय में हर ग्रह के लिए अलग-अलग विशिष्ट नवग्रह वनस्पतियों की समिधा (हवन) प्रयोग की जाती है, जैसा  कि गरुण पूरण के निम्न श्लोक में वर्णित है:

अर्कः पलाशः खदिरश्चापामार्गोऽथ पिप्पलः।

औडम्बरः शमी द्रूवा कुशश्च समिधः क्रमात्।।

अर्थात अर्क (मदार), पलाश, खदिर (खैर), अपामार्ग (लटजीरा), पीपल, ओड़म्बर  (गूलर), शमी, दूब और कुश क्रमश: (नवग्रहों की) समिधायें हैं। तदनुसार नवग्रह कि वनस्पतियों की सूची फोटो में दी गयी है:

नवग्रह वाटिका की स्थापना

नवग्रह से संबंधित पेड़-पौधे एवं वनस्पतियों को ग्रहों के  विशिष्ट स्थान और दिशा में  उगाया जाता है ताकि इनका अधिक लाभ मिल सके। बीते कुछ वर्षों से देश के  विभिन्न राज भवनों, सरकारी एवं निजी प्रतिष्ठानों में नव गृह वाटिकाओं की स्थापना की जा रही है। इससे न केवल पर्यावरण संरक्षण बल्कि लोगों में वृक्षारोपण एवं सेहत के लिए पेड़ पौधों के उपयोग के प्रति उत्साह भी देखने को मिल रहा है। नव गृहवाटिका की स्थापना धार्मिक स्थल, विद्यालय एवं सार्वजनिक पार्कों में करने से आम जन को पूजा अर्चना के लिए शुद्ध सामग्री प्राप्त हो सकती है और ऐसा माना जाता है कि इन वृक्ष  वनस्पतियों के संपर्क  में आने पर नौ ग्रहों के कुप्रभाव शांत होते है। नवग्रह मंडल में गृह के अनुसार वृक्ष/वनस्पतियों की स्थापना करने पर वाटिका की स्थिति  फोटो में बताये अनुसार होनी चाहिए।

नवग्रह वृक्ष वनस्पतियों का परिचय

1.    आक :  सूर्यगृह (सन) के प्रतिनिधि आक को मदार, अर्क, क्षीर-पर्ण  तथा वनस्पति शास्त्र में केलोट्रोपिस प्रोसेरा कहते है। इसकी पत्तियों एवं तनों को तोड़ने से एक दूधनुमा रस निकलता है, जिसे लेटेक्स कहते है इसकी पत्तियां, तना, जड़, फूल एवं फलों का इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में किया जाता है. भगवान् शिव को इसके पुष्प अर्पित किये जाते है। सूर्यदेव की उपासना से व्यक्ति बुद्धिमान होता है, याददास्त बढती है और मान-सम्मान में वृद्धि होती है।

2.    पलाश : चन्द्र गृह (मून) के प्रतिनिधि  पलाश को टेसू, ढाक, किंशुक तथा वनस्पति शास्त्र में ब्यूटिया मोनोस्पर्मा कहते है।  इसका पेड़ मध्यम आकार का 10-16 मीटर लंबा एवं खुरदुरे तनेवाला होता है.  होली के आस-पास वसंत ऋतु में पलाश के पेड़ पर गहरे लाल-नारंगी रंग के पुष्प खिलते है, जिनसे प्राकृतिक रंग प्राप्त किया जाता है। शिव रात्रि के दिन शिवजी को पलाश के फूल अर्पित किये जाते है. इसकी पत्तियां त्रिपत्रक (ढाक के तीन पात) होती है, जिनका उपयोग दोना-पत्तल बनाने में किया जाता है. इस पेड़ से प्राप्त गोंद को कमर-कस कहते है, जिसे स्त्री रोगों में लाभकारी माना जाता है नोबल पुरुस्कार प्राप्त कविवर रविन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी कुटिया के चारो तरफ  पलाश के वृक्ष रोपित किये और अपनी कुटिया का नाम पलाशी रखा. पलाश का छाल, जड़, फूल, फल व बीज का उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयुक्त होता है। चन्द्र देव की कृपा होने पर मानशिक स्वास्थ अच्छा रहता है और परिवार में सुख और शांति का वास होता है।

3.    खैर: मंगल (मार्स) गृह के प्रतिनिधि खैर वृक्ष को खादिर व कत्था एवं वनस्पति विज्ञान में अकेसिया कटेचू कहते है। शुष्क क्षेत्रों में उगने वाले इस कांटेदार वृक्ष की पत्तियां बबूल सदृश्य छोटे-छोटे पत्रकों में लगी होती है। इसी वृक्ष से पान के साथ उपयोग किया जाने वाला कत्था प्राप्त होता है। खैर की पत्तियों, काष्ठ, छाल एवं बीज में औषधिय गुण पाए जाते है, जिनका उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार में किया जाता है। खैर की लकड़ी का उपयोग कृषि औजार बनाने तथा कोयला बनाने के लिए किया जाता है. खेर की जड़ से दांतून करने से दांतों की समस्या से निजात मिलती है। पत्तियों का उपयोग त्वचा रोग, जहरीले कीटों के दंश आदि में लाभकारी माना जाता है। मंगल गृह के प्रभाव से व्यक्ति स्वस्थ रहता है और नाम एवं ख्याति बढती है।

4.    अपामार्ग: बुध (मरकरी) का प्रतिनिधि अपामार्ग को लटजीरा, चिरचिटा तथा वनस्पति विज्ञान में एकीरेंथस अस्पेरा कहते है, जो एमेरेंन्थेसी कुल का स्वतः उगने वाला 2-3 फीट ऊंचा बढ़ने वाला झाड़ीनुमा पौधा है। इसके पुष्प व फल एक लंबी शाखा पर उलटे लगते है। इसके कांटेदार फल के संपर्क में आने पर शरीर व वस्त्रों पर चिपक जाते है अपामार्ग पौधे के विभिन्न भागों का उपयोग तमाम रोगों के उपचार में किया जाता है। श्वांस रोग जैसे शर्दी-खांसी, दमा आदि रोगों के उपचार में इसकी जड़ का प्रयोग किया जाता है। इसकी जड़ से दातुन करने से दांत स्वस्थ एवं  मजबूत होते है

5.    पीपल: गुरु/बृहस्पति (जूपिटर) का प्रतिनिधि पौधा पीपल को अश्वत्थ तथा वनस्पति शास्त्र में फाइकस रेलिजिओसा कहते है। इसके वृक्ष विशालकाय होते है, जिसके पत्ते चिकने व ह्र्दयाकार होते है। इसे इसकी शखाओं को तोड़ने पर दूधिया रस निकलता हैभारत में बहुत पवित्र पेड़ माना जाता है. मान्यता है कि भगवान् बुद्ध ने इसी वृक्ष के नीचे बैठकर कठिन तपस्या की थी. इसे सुख, शांति, समृद्धि, सौभाग्य एवं दीर्ध जीवन का प्रतीक माना जाता है। मंद हवा में भी इसके पत्ते हिलने लगते है, इसलिए इसे अस्थिर मन का प्रतीक भी माना जाता है-पीपर पात सरिस मन डोला।  पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले, वायु को शुद्ध करने वाले तथा पशु पक्षियों को आश्रय एवं भोजन प्रदान करने वाले  पीपल के पेड़ की छाल, जड़, पत्ते, फूल और फल का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। बुध गृह व्यक्ति को ज्ञानवान बनाता है और  भगवान विष्णु की कृपा बनी रहती है।

6.    गूलर: शुक्र (वीनस) गृह का प्रतिनिधि गूलर को उदम्बर एवं वनस्पति शास्त्र में फाइकस रेसीमोसा कहते है, जो एक घना व छायादार वृक्ष है।  इसके तने व शाखाओं पर हरे रंग के गोल फल गुच्छो में लगते है जो पकने पर गुलाबी लाल रंग के हो जाते है। इसके फल पौष्टिक एवं सेहत के लिए लाभकारी होते है पशु-पक्षी गूलर के फलों का सेवन करते है। माना जाता है कि सत्यवादी रजा हरिश्चंद का मुकुट उदम्बर की टहनी से बना था जो सोने से जड़ी थी और उनका सिंहासन भी इसकी लकड़ी से बना था अथर्ववेद में गूलर वृक्ष के औषधिय गुणों का  विवरण मिलता है शुक्र गृह की उपासना से ब्यक्ति के पूर्व जन्म के बुरे कर्मो से मुक्ति मिलती है।

7.    शमी: शनिगृह (सैटर्न) का प्रतिनिधि पौधा शमी को खेजड़ी, छयोंकर तथा वनस्पति शास्त्र में प्रोसोपिस सिनेरिरिया कहते है हमारे महाकाव्य महाभारत में शमी की महिमा का वर्णन मिलता है  माता सीता की खोज में निकले भगवान श्रीराम ने भी मनोकामना की पूर्ति  हेतु शमी वृक्ष  की पूजा की थी आज भी दशहरे के दिन शमी वृक्स्थष की पूजा अर्लीचना की जाती है भारत के मरुस्यथलीय  क्षेत्रों का यह बहुपयोगी वृक्ष है। इस वृक्ष की फलियों से सब्जी बनाई जाती है  शमी वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग धार्मिक  हवन समग्री एवं विवाह मंडप तैयार करने में किया जाता है इसकी पेड़ के सभी भागों का औषधिय महत्व है शनि गृह की उपासना से व्यक्ति धनवान, ज्ञानवान एवं स्वस्थ रहता है

8.    दूब: छाया गृह राहु की प्रतिनिधि दूब घास को दुर्बा, हरियाली एवं वनस्पति विज्ञान में साइनोडॉन डेक्टिलोन कहते है. भगवान् गणेश को प्रिय दुर्बा घास का उपयोग पूजा-अर्चना में किया जाता है. प्रतिकूल परिस्थितयों में भी हमेशा हरी भरी रहने वाली इस घास पर नंगे पाँव चलने से शरीर की अनेक व्याधियां समाप्त हो जाती है। बुखार, सर दर्द, मधुमेह, जलन, दस्त आदि रोगों के उपचार में दूब घास को प्रभावकारी माना जाता है। राहू की उपासना से इस गृह  के कुप्रभाव से बचा जा सकता है

9.    कुश: छायाग्रह केतु की प्रतिनिध कुश घास को दर्भ तथा वनस्पति शास्त्र में डेस्मोस्टेचिया बाईपिन्नेटा कहते है।  शुष्क भूमियों में उगने वाली इस घास को सनातन धर्म में अत्यंत पवित्र माना जाता है. कुशा घास से बनी पवित्री  (अंगूठी) पहन कर  यज्ञीय कार्य और पूर्वजों को तर्पण दिया जाता है. ऋषि मुनि इससे बने आसन पर बैठकर योग एवं ध्यान करते है। आयुर्वेद में अनेक असाध्य रोगों के उपचार में इस घास का प्रयोग किया जाता है। केतु की उपासना से व्यक्ति को मानसिक रोगों से छुटकारा मिलता है।

नवग्रह वाटिका के लाभ

      1.      नवग्रह वाटिका ऊर्जा एवं शान्ति का महत्वपूर्ण स्त्रोत मानी जाती है जिस प्रकार से ग्रहों के लिए निर्धारित रत्नों के प्रभाव से ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त होती है, उसी प्रकार ग्रहों के अराध्य वृक्ष वनस्पतियों के सामीप्य से उतनी ही अनुकूलता प्राप्त होती है नव गृहवाटिका के प्रमुख लाभ है:

  •               नव गृह वाटिका वास्तु की सहायता से 9 ग्रहों के नकारात्मक प्रभावों को कम करने में सहायक है।
  •               इस वाटिका से वास्तु दोष को कम किया जा सकता है और इनसे ऊर्जा प्राप्त होती है।
  •              नव गृह वाटिका की स्थापना से लोगों में वृक्षारोपण और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता और पेड़-पौधों के संरक्षण की भावना भी पैदा होती है।
  •                नव गृह वाटिका के पौधे मनुष्य की बहुत सी बीमारियों से रक्षा करते है।
  •              नवग्रह वाटिका पशु-पक्षियों को आश्रय देने के साथ-साथ मनुष्य को छाया एवं आरोग्य प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो सकती है।
  •               उचित समय एवं सही दिशा में उगाये जाने पर वाटिका के पौधे दिव्य ऊर्जा को अपनी और आकर्षित करते है और मनुष्य के लिए फलदायी होते है।

    इस प्रकार से हम कह सकते है कि नव गृहवाटिका केवल धार्मिक आस्था का विषय नहीं है, बल्कि इसके अनगिनत लाभ को देखते हुए भारत के सभी राज्यों के विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों, अस्पतालों के साथ-साथ सभी प्रकार के सरकारी और निजीं प्रतिष्ठानों पर इसकी स्थापना करने से वर्तमान में आसन्न जलवायु परिवर्तन के खतरे, पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याओं से निपटा जा सकता है इसके अलावा इसकी मदद से हम देश की बहुमूल्य जैव विविधता का भी संरक्षण कर सकते है

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गुरुवार, 26 जनवरी 2023

वास्तविक सम्मान के हकदार भारत के अन्नदाताओं को पद्मश्री पुरस्कार-2023

 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद

कृषि प्रधान  भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद एवं  बहुसंख्यक किसानों के जीवन की धुरी न केवल भारत की जनता बल्कि विश्व के बहुतेरे देशों का भरण पोषण कर रही है. खेती-किसानी  अब महज फसलों की बुआई एवं कटाई तक ही सीमित नहीं रह गई, बल्कि अपने हुनर एवं नवाचारों के माध्यम से  देश के किसानों ने खेती के माइने ही बदल दिए है. अनेक किसानों ने प्राकृतिक एवं पारंपरिक खेती, प्राचीन बीजों का संरक्षण एवं संवर्धन तथा नावोन्वेशी कृषि तकनीकों के क्षेत्र में नित-नई सफलता अर्जित कर भारत का नाम रोशन किया है. असंख्य नवाचारी किसानों में अग्रणी अन्नदाताओं को भारत सरकार ने बीते कुछ वर्षों से पदम् पुरुस्कार से सम्मानित करने का श्रेष्ठ कार्य किया है. इस वर्ष कृषि के क्षेत्र में अपना जीवन खपाकर उल्लेखनीय एवं अनुकरणीय कार्य करने वाले चार किसानों को भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित करने का निर्णय लिया है. वास्तव में यह देश के सभी किसानों एवं कृषि क्षेत्र की उन्नति-प्रगति में संलग्न कृषि वैज्ञानिकों एवं कृषि अधिकारीयों के लिए भी सम्मान है. अपने विचारों एवं कार्यों से कृषि क्षेत्र में बदलाव एवं विकास की गाथा लिखने वाले ये  किसान न केवल  अन्य किसानों बल्कि कृषि वैज्ञानिकों एवं युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत बन जाते है. इनकी सतत मेहनत एवं तपस्या को हम नमन करते है  इस वर्ष 2023 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित कियें जाने वाले किसान भाइयों का संक्षिप्त परिचय अग्र प्रस्तुत है.


1.सिक्किम के  श्री तुला राम उप्रेती

आज सिक्किम पूरी दुनिया में ऑर्गेनिक स्टेट के रूप में उभर कर में अपनी खास पहचान बना चुका हैं. इसका पूरा श्रेय प्रदेश के किसानों को जाता है.  सिक्किम के पाकयोंग जिले के रहने वाले  98 वर्षीय प्रगतिशील किसान  श्री तुला राम उप्रेती ने सिद्ध कर दिया कि इंसान में यदि  काम करने का और कुछ नया कर दिखाने का जज्बा हो तो उम्र का कोई बंधन नहीं होता है. उन्होंने अपना  पूरा जीवन जैविक खेती के  प्रयोग करते हुए कई प्रतिमान स्थापित किये है. श्री उप्रेती जी ने न केवल स्वयं  प्राकृतिक खेती को अपनाया बल्कि राज्य के तमाम किसानों को जैविक खेती-प्राकृतिक खेती के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित  एवं प्रेरित करने का कार्य भी किया है. बीते छः दशक से कृषि के क्षेत्र में पूरी तन्मयता से  कार्यरत रहते हुए जैविक खेती के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए श्री तुला राम जी को  इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा जा रहा है. वे पूरे भारत में जैविक खेती में संलग्न किसानों एवं वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गए है.

2.केरल में धान के संरक्षक श्री चेरुवयल रामन

धान की औषधीय, जलवायु परिवर्तन के लिए प्रतिरोधी और खास देसी किस्में पहले से ही मौजूद हैं. इनमें से कई विलु्प्ति की कगार पर हैं. उन्होंने धान की सैकड़ों वर्ष पुरानी 54 प्रजातियों का संरक्षण किया है.  केरल के वायनाड में 1960 से खेती में खप रहे आदिवासी किसान श्री रामन को 2013 में पौधों की किस्मों के संरक्षण एवं किसान अधिकार प्राधिकरण से जीनोम सेवियर अवार्डभी मिल चुका है। चावल की स्थानीय किस्मों के संरक्षण, संवर्धन एवं उपयोग पर वे किसानों को प्रशिक्षित भी करते है. प्रगतिशील किसान श्री चेरुवयल रामन के धान की प्राचीन किस्मों के संरक्षण एवं संवर्धन के क्षेत्र में अद्वितीय एवं अनुकरणीय योगदान के लिए इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार से समानित किया जा रहा है. वे देश के किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गए है.

3. उड़ीसा के किसान पटायत साहू

उड़ीसा के कालाहांडी के नांदोल में रहने वाले 65 वर्षीय किसान श्री पटायत साहू विगत के क्षेत्र में अनूठा काम कर रहे हैं. उन्होंने 40 वर्ष पूर्व औषधिय पौधों का रोपण प्रारंभ किया. आज इनके पास 3,000 बहुमूल्य औषधि पौधों का संकलन है. वे अपनी डेढ़ एकड़ की भूमि पर जैविक पद्धति से औषधिय पेड़ पौधों की खेती करते है. श्री पटायत जी अपने पिताजी से विरासत में मिले ज्ञान, अपने प्रयोग एवं अनुभव से औषधिय पौधों पर किताब भी प्रकाशित कर चुके है. पेशे से किसान श्री साहूजी बीमार ग्रामीणों का उपचार भी करते है.प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी ‘मन कि बात’ में उनके प्रयासों कि सराहना की है. श्री पटायत साहू आज औषधिय पेड़ पौधों की खेती में जुटे तमाम किसानों, वैज्ञानिकों एवं उधमियों के लिए प्रेरणास्त्रोत है.

4. हिमाचल प्रदेश के श्री नेकराम शर्मा

हिमाचल प्रदेश के जिला मंडी स्थित नाजगाँव के  दसवीं कक्षा तक पढ़े एवं साधारण किसान  श्री नेकराम शर्मा 1993 से देशी अनाज के बीजों को संरक्षि‍त करने का अभिनव काम कर रहे हैं. उन्होंने अपने बीज बैंक में 40 तरह के प्राचीन अनाजों को संरक्षि‍त  कर एक बीज बैंक स्थापित की है जिसमें चावल, मक्का,गेहूं, चौलाई, राजमा, सोयाबीन, चीना, कोदो, बाजरा, व ज्वार की देशी प्रजातियां सम्मलित है.  देशी अनाजों के बीज संरक्षण की दिशा में अभी तक वे 6 राज्यों के 10 हजार किसानों  को निःशुल्क बीज बांट चुके हैं. इसके  अलावा श्री नेकराम जी ने ‘नौ अनाज’ की पारंपरिक फसल प्रणाली को  पुनर्जीवित कर आज के किसानों को नई दिशा दी है. यही नहीं, वे रसायन मुक्त-जैविक खेती के  लिए देश के अन्य किसानों  को भी प्रेरित  कर चुके हैं. लुप्त होती फसलों एवं उनकी प्रजातियों का संरक्षण एवं संवर्धन में  देश के किसानों एवं वैज्ञानिकों  को श्री नेक राम जी से प्रेरणा लेकर निरंतर कार्य करते रहने की आवश्यकता है.

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

खाद्यान्न एवं पोषण सुरक्षा के साथ-साथ किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए लाभकारी है काले चावल की खेती

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

चावल विश्व की आधी से अधिक आबादी का मुख्य भोजन है भारत में चावल की खेती 43.86 मिलियन हेक्टेयर में की जाती है, जिससे 117.47 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता है. दानों के आकार,बनावट, सुगंध, पकने की अवधि, उगाये जाने वाले क्षेत्र एवं रंग (सफेद, भूरा, काला एवं  लाल चावल) के अनुसार विभिन्न प्रकार के होते है चावल की रंगीन प्रजातियां सेहत के लिए अधिक लाभप्रद मानी जाती है राजसाही जमाने में चीन में काले चावल का भंडारण एवं उपभोग केवल वहां के शासक एवं रॉयल परिवार ही कर सकते थे, इसलिए काले चावल को फॉरबिड्डन चावल (Forbidden rice) कहा जाता है

चावल में मुख्य पौष्टिक तत्व उसके ऊपरी परत में होते है, जिसे मिलिंग एवं पॉलिशिंग के दौरान निकालकर राइस ब्रान आयल बनाने में इस्तेमाल किया जाता है मिलिंग के बाद प्राप्त चावल में कार्बोहाइड्रेट के अलावा बहुत कम पौष्टिक तत्व बचते है यही वजह है कि नियमित रूप से सफेद चावल का सेवन करने वाले लोग मोटापा, मधुमेह एवं अन्य रोगों से ग्रसित होते जा रहे है सेहत के लिहाज से रंगीन चावल सर्वोत्तम होते है. चीन एवं अन्य एशियन देशों के शासकों द्वारा खाए जाने वाले एवं आज सुपरफ़ूड के नाम से प्रसिद्ध काले चावल के पौष्टिक गुणों का खुलासा होने के बाद आज दुनिया में इस चावल की मांग निरंतर बढती जा रही है

काला चावल (ओराइजा सटीवा एल. इंडिका) एक विशेष प्रकार का चावल है. इसकी बाहरी परत (एल्युरोन लेयर) में एंथोसियानिन वर्णक (Cyanidin-3-glucoside, cyanidin-3-rutinoside, and peonidin-3-glucoside) अधिक मात्रा में पाया जाता है, जिनके कारण  यह काले बैंगनी रंग का होता है भारत के मणिपुर में काले चावल की खेती परंपरागत रूप से की जाती है इसे मणीपूरी भाषा में चकहवो (स्वादिष्ट चावल) कहा जाता है भारत के अन्य राज्य मसलन ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी काले चावल की खेती प्रारंभ हो गई है. बाजार में काले चावल की कीमत 150-250 रूपये प्रति किलो के भाव से बेचा जा रहा है इस लिहाज से सामान्य चावल की अपेक्षा काले चावल की खेती से आकर्षक मुनाफा अर्जित किया जा सकता है

काले चावल का इतिहास

चीन, कोरिया एवं जापान में काले चावल का उपभोग शदियों से किया जा रहा है. राजसाही के जमाने में  चीन एवं इंडोनेशिया में बगेन सम्राट की अनुमति के आम आदमी काले चावल का भण्डारण, खेती एवं उपभोग  नहीं कर सकता था सिर्फ रॉयल परिवार एवं ख़ास लोग ही इसका सेवन कर सकते थे उस समय ऐसा माना जाता था, काले चावल के सेवन से राजा दीर्धायु एवं स्वस्थ रहते थे और इसलिए काले चावल को श्रेष्ठ एवं दुर्लभ माना गया था.  एंटीऑक्सीडेंट एवं तमाम पोषक तत्वों में परिपूर्ण काले चावल को अनेक नामों जैसे फॉरबिडन राइस, किंग्स राइस, हेवन राइस आदि से जाना जाता है। पौष्टिक महत्व को देखते हुए अब काले चावल की खेती एवं उपभोग अनेक देशों में किया जाने लगा है

काले चावल का पोषक मान

चावल का पोषक मान भूमि की उर्वरता, जलवायु, किस्म, मिलिंग आदि कारकों पर निर्भर करता है. काले धान की किस्मों में प्रोटीन एवं फाइबर की मात्रा अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है.  काले चावल में एवं अन्य चावल में पोषक तत्वों की मात्रा अग्र सारणी में दी गयी है. चावल की अन्य प्रजातियों की  अपेक्षा काले चावल में 6 गुना अधिक मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट, उच्च प्रोटीन, न्यूनतम फैट पाया जाता है. यह ग्लूटिन मुक्त, पाचक एवं औषधीय गुणों से युक्त होता है. काले चावल में आवश्यक अमीनो अम्ल जैसे लायसीन, ट्रिप्टोफेन, सक्रिय लिपिड, डाइटरी फाइबर, विटामिन बी-1, विटामिन-बी-2, विटामिन ई, फोलिक अम्ल एवं फिनोलिक कंपाउंड पाए जाते है. इसमें तमाम खनिज तत्व जैसे आयरन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, सेलेनियम पाए जाते है. काले चावल में कैलोरी कम होती है. यह चावल पकाने पर थोडा चिपचिपा होता है.

विभिन्न रंग के चावल में पायें जाने वाले पोषक तत्व

पौष्टिक तत्व

काला चावल

(Black rice)

लाल चावल

(Red rice)

भूरा चावल

(Brown rice)

सफेद चावल (Polished rice)

प्रोटीन (ग्राम)

9.0

7.2

8.4

6.1

वसा (ग्राम)

1.0

2.5

2.2

1.4

फाइबर (ग्राम)

0.51

0.45

0.42

0.33

आयरन (मिग्रा)

3.5

5.5

2.7

1.3

जिंक (मिग्रा)

0.0

3.3

1.7

0.5

 सेहत के लिए विशेष उपयोगी है काला चावल

काले चावल  को पकाने पर गहरा बैंगनी रंग का हो जाता है काले चावल को उबाल कर भात अथवा पुलाव  के रूप में खाया जाता है इसके अलावा इससे खीर, ब्रेड, केक, नूडल्स आदि तैयार कर खाने में इस्तेमाल किया जा सकता है  काले चावल की ऊपरी परत में एंथोसायनिन (cyanidin-3-O-glucoside and peonidin-3-O-glucoside) पाया जाता है जो शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट के रूप में कार्य करता है.  यह गंभीर संक्रमणों से (ह्रदय रोग)  सुरक्षा प्रदान करता है यह रक्त धमनियों कि रक्षा, कोलेस्ट्राल के स्तर को नियंत्रित करने, खराब कोलेस्ट्राल को घटाने एवं  कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने से रोकने में सहायक होता है. इसमें मौजूद विटामिन ई नेत्र एवं त्वचा को स्वस्थ बनाये रखने में लाभकारी है काले चावल में कैलोरी,कार्बोहाइड्रेट एवं वसा  कम  होने की वजह से यह वजन  नियंत्रित करने में सहायक  होते है इसमें विद्यमान फायटोन्यूट्रीएन्ट विभिन्न रोगों से सुरक्षा एवं दिमाग को कार्यशील बनाये रखते है अन्य चावलों की तुलना में काले चावल में फाइबर की प्रचुरता होने की वजह से इसके सेवन से पाचन तंत्र दुरुस्त रहता है प्रोटीन और खनिज तत्वों की बहुलता के साथ-साथ यह चावल ह्रदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्त चाप, मोटापा, किडनी, लिवर  व उदर रोग से पीड़ित व्यक्तियों के लिए फायदेमंद होते है । सफेद चावल की अपेक्षा काले चावल में प्रोटीन एवं विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाने के कारण यह खाद्यान्न सुरक्षा के साथ-साथ पोषण सुरक्षा प्रदान करने वाला खाद्यान्न है विश्व में बढते  कुपोषण और मोटापा  जैसी गंभीर समस्याओं को  कम करने के लिए काले चावल के सेवन को प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है

काले चावल के अन्य उपयोग

     ब्लूबेरी की तुलना में काला चावल  एंथोसायनिन का उत्तम स्त्रोत है जल में घुलनशील होने के कारण, इसे प्राकृतिक डाई के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है खाद्य एवं कॉस्मेटिक उत्पाद में इसे एंटीएजिंग एजेंट के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है पॉलीफेनोल की प्रचुरता होने की वजह से काले चावल को पौष्टिक पेय तैयार करने में इस्तेमाल किया जा सकता है

काले चावल की खेती का भविष्य उज्जवल   

पौष्टिक गुणों से परिपूर्ण एवं सेहत के लिए फायदेमंद होने के कारण खाद्य, कॉस्मेटिक, न्यूट्रास्यूटिकल एवं फार्मास्यूटिकल क्षेत्र में काले चावल की बढती मांग  एवं कम उत्पादन के कारन बाजार में काला चावल 150 से 200 रूपये तक बेचा जा रहा है इसलिए किसानों को काले चावल की खेती काफी फायदेमंद सिद्ध हो रही हैचीन के बाद  भारत के पूर्वोत्तर राज्यों यथा असम, मणिपुर और सिक्किम में काले चावल की खेती की जाती थी। लेकिन अब इसकी खेती उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, बिहार, आदि कई राज्यों में सफलतापूर्वक की जा रही है। चंदौली का काला चावल तो अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका है. भारत के प्रधानमंत्री के अलावा अंतरराष्ट्रीय संस्था-UNDP भी चंदौली के काले चावल कि प्रसंशा की जा चुकी है

 मणिपुरी ब्लैक राईस जिसे स्थानीय रूप से चक-हाओ कहा जाता है, को वर्ष 2020 में भौगोलिक सूचक (जीआई) टैग प्रदान किया गया है।उड़ीसा में  काले चावल को कलाबाती –कालाबैंशी  एवं छत्तीसगढ़ में करियाझिनी के नाम से जाना जाता है

काले चावल कि प्रमुख किस्में

चक हओ :  यह मणीपुर में परंपरागत  रूप से उगाई जाने वाली काले चावल की प्रजाति है. इसकी पत्तियां एवं धान के छिलके काले रंग के होते है यह शीघ्र तैयार होने वाली किस्म है

कालाभाती: यह ओडिशा में उगाई जाने वाली काले चावल की किस्म है यह 150 दिन में तैयार होने वाली किस्म है, जिसके पौधे 5 से 6.5 फीट ऊंचे बढ़ते है. इसके पौधे एवं भूसी बैंगनी  रंग तथा चावल काले रंग के होते है अधिक उत्पादन लेने एवं कंशों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से इसके पौधों की ऊँचाई 2-3 फीट की होने पर ऊपर से कटाई-छटाई कर दी जाती है. इस किस्म से 12-15 क्विंटल प्रति एकड़ उपज प्राप्त की जा सकती है.

बुआई का समय

सामान्य चावल की भांति काले चावल को भी गर्म एवं नम जलवायु में आसानी से उगाया जा सकता है. बीजों के अंकुरण के लिए कम से कम 210 C तापक्रम की आवश्यकता होती है. फसल पकते समय वातावरण का तापमान कम होने से उपज एवं चावल की गुणवत्ता में सुधार होता है. सामान्य तौर पर जून-जुलाई में बोई गयी काले चावल की फसल जनवरी में कटाई के लिए तैयार हो जाती है.  

बीज एवं बुआई

काले चावल के स्वस्थ  बीज विश्वसनीय प्रतिष्ठानों से  ही लेना चाहिए. रोपण विधि से 12-15 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बीज पर्याप्त रहते है. बीजोपचार करने के बाद बीज को अंकुरित कर लेही विधि से भी बुवाई  की जा सकती है, बेहतर उपज के लिए नर्सरी तैयार कर 30 x 30 सेमी की दूरी पर रोपाई करना अच्छा रहता है. काले धान के पौधे अधिक ऊंचे बढ़ते है एवं इनके गिरने कि संभावना रहती है. उचित दूरी पर बुआई अथवा रोपाई करने से पौधे स्वस्थ एवं मजबूत होते है, जिससे उनके गिरने की आशंका कम रहती है.  अतः बुआई अथवा रोपाई ईष्टतम दूरी पर करना उचित होता है.  काले चावल की खेती में रासायनिकों का उपयोग सीमित किया जाता है. अधिक उपज के लिए गोबर की खाद, कम्पोस्ट एवं हरी खाद का उपयोग करने से चावल की गुणवत्ता में सुधार होता है. खरपतवार नियंत्रण हेतु आवश्यक निराई गुड़ाई करना जरुरी है.

काले चावल का उत्पादन एवं उपलब्धता बढ़ाना जरुरी

काले चावल के पौधे अधिक ऊंचे होने के कारण इसकी फसल गिरने की आशंका बनी रहती है. इसके अलावा देरी से पकने एवं उन्नत जातियों के आभाव के कारण किसान इसकी खेती की तरफ उन्मुख नहीं हो रहे है. अधिक मूल्य मिलने की वजह से कुछ राज्यों के किसान इसकी खेती कर रहे है. उत्पादन कम होने के कारण यह चावल, सफेद चावल से काफी मंहगा है, जो आम आदमी की पहुँच से बाहर है.  बढती मांग के कारण काले चावल का उत्पादन बढ़ाना जरुरी है, तभी आम आदमीं को उचित मूल्य पर यह पौष्टिक आहार उपलब्ध हो सकता है.  काले चावल की खेती  को बढ़ावा देने के लिए भारत की विभिन्न जलवायुविक परिस्थितियों में शोध करना आवश्यक है. इसकी उन्नत प्रजातियां का विकास एवं खेती की उन्नत सस्य विधियों के प्रचार प्रसार से खेती के अंतर्गत क्षेत्र एवं उत्पादन को बढाया जान चाहिए.

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