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शुक्रवार, 6 जून 2014

भारी पड़ सकती है पौष्टिक अनाजों (मोटे अनाज) की अवहेलना

                                                                         डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                             प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
                                  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                   प्राचीन काल में भारत की कृषि उत्पादन प्रणाली में काफी विविधता देखने को मिलती थी। गेहूं, चावल, जौ,  मक्का, ज्वार, बाजरा, कोदों, कुटकी, रागी, चना, मटर, मूँग, उड़द, अरहर, सरसों ,मूंगफली, गन्ना, कपास आदि नाना प्रकार की फसलें उगाई जाती थी। लघु-धान्य फसलों  को  मोटे अनाज कहा जाता है । दानों  के  आकार के  अनुसार मोटे अनाजों  को  दो  वर्गों में वर्गीकृत किया गया है प्रथम मुख्य मोटे अनाज जिसमें ज्वार और  बाजरा आते है।  दूसरे लघु धान्य जिसमें बहुत से छोटे दाने वाले मोटे अनाज आते है जैसे रागी (फिंगर मिलेट), कंगनी (फाॅक्स-टेल मिलेट), कोदों  (कोदो  मिलेट), चीना (प्रोसो  मिलेट), सांवा (बार्नयार्ड मिलेट) और और कुटकी (लिटिल मिलेट) । इन अनाजो  की खेती से अनेक फायदे है जिसमें इनमें सूखा सहन  करने  की अदभुत क्षमता, पकने की संक्षिप्त अवधि , कम लागत विशेषकर खाद-उर्वरको  की न्यूनतम मांग, कम मेहनत के  अलावा कीट-व्याधी प्रतिर¨धक क्षमता, प्रमुख है ।  मौसम परिवर्तन (कम होती वर्षा, तापमान में इजाफा तथा पर्यावरण प्रदुषण) के इस  दौर में इनकी खेती लाभकारी ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है।अब स्थिति यह है कि आजादी के बाद बदली कृषि-व्यवस्था ने भारतीयों को गेहूं व चावल आदि फसलों पर निर्भर बना दिया है । इसके अलावा विश्व-व्यापारीकरण और  बाजारीकरण के बढ़ते प्रभाव से किसानों का मोटे अनाजों, दलहनों और तिलहनों की खेती से मोहभंग होता चला जा रहा है। आजादी के बाद धान और गेहूं जैसी फसलों को बढ़ावा दिया गया जिसके  परिणाम स्वरूप कुल कृषि भूमि में से मोटे अनाजों का रकबा  और  उत्पदान निरंतर घटता जा रहा है। यद्यपि मोटे अनाज के  उत्पादन  में भारत अभी भी विश्व में सिरमौर है परन्तु 1961 से 1912 के  दरम्यान इनके  क्षेत्रफल में भारी गिरावट हुई है । इसके  बावजूद कुछ मोटे अनाजों  में उन्नत किस्मों  के  प्रयोग से कुल उत्पाद में इजाफा हुआ है। मोटे अनाजों  का लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र सोयाबीन, मक्का, कपास, गन्ना और  सूर्यमुखी की खेती में तब्दील होता जा रहा  है। इन बहुपयोगी फसलों के क्षेत्रफल में इसी रफ़्तार से गिरावट जारी रही तो एक दिन  पुरखों की इस अमूल्य धरोहर-पौष्टिक अनाज विलुप्त भी हो सकते है और यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही देश-दुनियां को भीषण अकाल-भुखमरी की त्रासदी झेलने के लिए विबस होना पड़ेगा। पौष्टिक अनाजों के अतीत और वर्तमान का लेख जोखा सारणी में प्रस्तुत है। 

            पौष्टिक अनाज और लघु धान्य फसलों के क्षेत्रफल में गिरावट और गेहूं और धान के क्षेत्र और  उत्पादन में बेतहासा इजाफा हुआ है । चावल-गेंहू की खेती के  क्रम में स्थान विशेष के पारिस्थितिकीय हालात, मिट्टी की संरचना, नमी की मात्रा, भू-जल आदि की घोर उपेक्षा की गई जिसके फलस्वरूप इन फसलों की उत्पादकता स्थिर हो गई है जो की चिंता का विषय है । दूसरी ओर गेंहू-धान फसलों में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक और असन्तुलित प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता और  उत्पादकता कम होने के  साथ-साथ पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है जिसकी वजह से वायुमण्डल के तापमान में भी वृद्धि  परिलक्षित होने लगी है।  सिंचाई के लिए भू-जल का अंधाधुंध दोहन किया जा  रहा है जिससे भू-जल स्तर गिर कर पाताल में पहुंच गया जिससे गहरे जल-संकट के  आसार नजर आ रहे है। अतः अब एक ऐसी नई हरित क्रान्ति लाने की आवश्यकता है जिससे मोटे अनाजों की पैदावार में वृद्धि हो सके। इससे जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट, भू-जल ह्रास, स्वास्थ्य और खाद्यान्न संकट जैसी समस्याओं को काबू में किया जा सकता है। इन फसलों को पानी, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जरूरत कम पड़ती है जिससे मिट्टी व भू-जल स्तर पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अलावा इन फसलों को उगाने में खेतीकी लागत भी कम आती है। सूखा प्रतिरोधी होने के साथ-साथ ये फसलें कम उपजाऊ भूमि पर भी सफलता से उगाई जा सकती है। ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो, कुटकी आदि मोटे अनाजो  की खेती मुख्यतः कम वर्षा वाले क्षेत्रों और ऊँची-नीची गैर उपजाऊ भूमिओं में की जाती है।इन विशेषताओं के बावजूद मोटे अनाज किसानों,कृषि-वैज्ञानिकों और नीति-निर्धारकों की नजर में अभी तक उपेक्षित है तो इसके पीछे प्रमुख कारण जनसाधारण में इनके प्रति गलत धारणाएं है।

पौष्टिकता में बेजोड़-सेहत के साथी  

                  पौष्टिकता और सेहत के मामले में मोटे अनाज गेहूं व चावल पर भारी पड़ते हैं। चूंकि आमजन  इन्हे मोटे अनाज के  रूप में जानते है और  सोचते है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज  गरीब लोग खाते  है। इसके विपरीत मोटे अनाज भारत के सूखाग्रस्त इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए पौष्टिकता का स्त्रोत हैं अर्थात नाजुक पारिस्थितिक तंत्र में पैदा होने वाले जवार, बाजरा, रागी और अन्य छोटे अनाज भारतीयों के भोजन की पौष्टिकता को बढ़ाते हैं.। इनमें प्रोटीन, फाइबर, कैल्शियम, लोहा, विटामिन और अन्य खनिज चावल और गेहूं की तुलना में दो गुने अधिक पाए जाते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इन अनाजों  की पौष्टिक श्रेष्ठता रेखांकित किया है। चावल की तुलना में कंगनी (फाक्सटेल मिलैट) में 81 प्रतिशत अधिक प्रोटीन, उपवास के  दौरान खीर-हलवा के  रूप में बहुदा खाई जाने वाली सवां (लिटिल मिलेट) में 840 प्रतिशत अधिक वसा (फैट), 350 प्रतिशत रेशा (फाइबर) और 1229 प्रतिशत लोहा (आयरन) पाया जाता है।  कोदो  में 633 प्रतिशत अधिक खनिज तत्व होते है। रागी में 3340 प्रतिशत अधिक कैल्शियम और  बाजरा में 85 प्रतिशत अधिक फाॅस्फ़ोरस पाया जाता है। इन सबके  अलावा ये अनाज विटामिनों  का भी खजाना है जैसे थायमेन (फाक्सटेल मिलेट), रायबोफ्लेविन व फ़ोलिक अम्ल (बाजरा), नियासिन (कोदो मिलेट) जैसी महत्वपूर्ण विटामिन इनमें विद्यमान होती है। अत्यंत पौष्टिक होने की वजह से इन अनाजों  में बहुत से औषधीय गुण भी होते है। अनेक विकारों  में इनके सेवन की संस्तुति की जाती है। मसलन पाचन (हाजमा) में सुधार, दिल से संबंधित विकृतियों में सुधार और  मधुमेह जैसे खतरनाक रोगों के लिए इनका भोजन रामवाण साबित हो रहा है । आजकल  चिकित्सक भी इनके  सेवन की सलाह देने लगे है।
                     इतने  सारे गुणो  के  बाबजूद क्या अभी भी हम इन स्वास्थ्यवर्धक और  पौष्टिक अनाजों  को  मोटा अनाज कहा जाना उचित ठहरा सकते है ? कदाचित नहीं।   इन अनाजो  की पौष्टिकता को  हम दूसरे  सरल तरीके  से भी समझ सकते है । भोजन में  बाजरे की एक रोटी खाने से हमें शरीर के  लिए आवश्यक विटामिन-ए मिल जाती है जिसकी पूर्ति एक किग्रा गाजर खाने से हो सकती है। एक अन्डे के  बराबर प्रोटीन हमें फाक्सटेल मिलेट का भोजन करने से मिल जाती है। तीन ग्लास दूध पीने से हमारे शरीर को  जितना कैल्श्यिम मिलता है उतना एक कटोरी रागी(मड़ुआ) को  भोजन के  रूप में लेने से प्राप्त हो सकता है। चूकि गाजर, अन्डे, दूध, पत्तेदार हरी सब्जियाँ गरीबों  की पहुँच के  बाहर हैं। इसलिए पौष्टिकता के  दृष्टिकोण से मिलैट को  गरीबों  का सोना कहना अतिशयोक्ति नहीं है । ऐसे महत्वपूर्ण और पौष्टिक अनाजों का इस्तेमाल इसलिए कम होता है क्योंकि उन्हें मोटे अनाज की श्रेणी में डाल दिया गया है। आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि ये निम्न गुणवत्ता के अनाज हैं. जबकि ये देखने में तो मोटे अनाज लगते हैं किंतु हैं बेहद पौष्टिक और  स्वादिष्ट भी। हमारे परंपरागत आहार में मोटे अनाजों का महत्वपूर्ण स्थान था किंतु गलत नामावली और भारी जनउपेक्षा की बजह से ये अनाज  धीरे-धीरे हमारी  थाली से बाहर निकलते चले गए। हमारी जीवनपद्धति से जुड़ी बहुत-सी बीमारियां इन मोटे अनाजों की अवहेलना का दुष्परिणाम हैं।  जैसे ही मोटा अनाज कहा जाता है आप सोचते हैं कि ये शायद पशुओं का भोजन है. हमें लगता है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज है. बढिया अनाज केवल गेहूं और चावल को माना जाता है. यही हमारे जन मानस में गहराई से बैठ गया है।

बदलना होगा इनका नामकरण

               बदलते परिवेश में समय की मांग है कि पौष्टिकता से सरावोर इन मोटे अनाजों  का नाम बदल कर पौष्टिक अनाज (न्यूट्री-सीरियल) क्यो  नहीं किया जा सकता ?  जब हम बम्बई का नाम बदलकर मुम्बई, मद्रास का चैनई, कलकत्ता का कोलकाता कर सकते है तो  फिर हम पौष्टिक अनाजॉ का नया वर्गीकरण क्यो  नहीं कर सकते है ? क्यो  नहीं मोटे अनाजों  के  स्थान पर हम इन्हे पौष्टिक अनाज के  रूप में जानें ? पौष्टिक अनाजों  में दलहन जैसे चना, अरहर, मूँग आदि को भी सम्मलित करना सोने पर सुहागा होगा । वैसे भी दाल-रोटी का चोली-दामन का साथ है। इनके मिले जुले सेवन से ही हमें संतुलित आहार प्राप्त हो सकता है। इस छोटे से बदलाव से ये भूले बिसरे पौष्टिक अनाज हमारी भोजन प्रणाली और  खेती किसानी कीे मुख्य धारा में सम्मलित हो  सकते  है ।
          आज विश्व में कुपोषण की समस्या गहराती जा रही है और  भारत भी इस गंभीर समस्या से अछूता नहीं है। अतः इन पौष्टिक अनाजों को दैनिक आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने की आवश्यकता है । यद्यपि खाद्य सुरक्षा कानून में इन फसलों  का जिक्र किया गया है । परन्तु सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत इनका भी  जन वितरण होना चाहिए । भारत सरकार को  इन अनाजों के लिए लाभकारी समर्थन-मूल्य घोषित किया जाना चाहिए और राज्य सरकारों को इनकी सरकारी खरीद, भंडारण व विपणन के लिए प्रभावी नेटवर्क स्थापित करने आवश्यक कदम उठाना चाहिए । गेहूं और धान की भाँति मोटे अनाजों के अनुसंधान, विकास और  प्रसंस्करण की सुविधाएं देश भर में स्थापित की जाए। वर्ष 2025 तक लगभग 30 मिलियन टन पौष्टिक अनाजों  की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा रहा है जिसकी पूर्ति के  लिए हमें क्षेत्र विस्तार के  साथ-साथ प्रति इकाई उत्पादकता बढ़ाने के  भी प्रयास करना चाहिए। पूरे देश में पौष्टिक एवं स्वास्थप्रद इन अनाजों  के   महत्व, उपयोगिता और इनकी खेती के  लाभों  के  बारे में जनजागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है । इन फसलों  की खेती को  बढ़ावा देने से न केवल रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का आयात व प्रयोग कम होगा, बल्कि मिट्टी, भू-जल के साथ-साथ कुपोषण की समस्या से निजात मिलेगी और  जनता  का स्वास्थ्य भी सुधरेगा। इस प्रकार बदलते मौसम चक्र, एकफसली खेती से हो रहे नुकसान  को देखते हुए पौष्टिक अनाजों की खेती भविष्य में एक उम्मीद की किरण के समान है। इससे न केवल कृषि का विकास होगा बल्कि खाद्य-सुरक्षा के साथ-साथ भारत की आम जनता को  पोषण-सुरक्षा भी हासिल हो सकेगी। 
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