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बुधवार, 12 अगस्त 2015

प्रतिकूल मौषम में रामतिल की खेती से अधिकतम प्रतिफल

                                                    डाॅ.गजेन्द्र सिंह तोमर एवं साक्षी तिवारी बजाज
                                                                      सस्य विज्ञान विभाग,
                                                       इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

             भारत के  विभिन्न क्षेत्रों में जगनी और  जटांगी के  नाम से मसहूर रामतिल (गुइजोसिया एबीसीनिका) को  लघु तिलहनी फसल माना जाता है। इसके बीज में 32-40 प्रतिशत गुणवत्तायुक्त तेल तथा  18-24 प्रतिशत प्रोटीन विद्यमान होने की वजह से रामतिल को  महत्वपूर्ण तिलहनी फसल के  रूप में पहचान मिल रही है। रामतिल के तेल का उपयोग खाद्य तेल के रूप में होता है। इसका उपयोग जैतून तेल के  विकल्प के  रूप में भी  किया जा रहा है और  इसे सरसों ,अलसी, तिल आदि तेलों के साथ मिलाकर भी प्रयुक्त किया जाता है।  स्वास्थ्य की दृष्टि से इसका तेल लाभकारी माना जाता है क्योंकि इसमें 70 प्रतिशत से कम असंतृप्त वसा अम्ल पाये जाते है।  बीज से तेल निष्कर्षण पश्चात शेष खली (केक) पशुओं  के लिए पौष्टिक आहार है। बीज को  साबुत भूनकर भी खाया जाता है । अनेक देशों में इसके बीज को पक्षिओं के दाने के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है।  इसके तेल का उपयोग साबुन, पेन्ट, वार्निश, आदि बनाने में भी किया जाता है। रामतिल को  सदाबहार फसल कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा क्योंकि इसकी खेती सभी मौसमो में बखूबी से की जा सकती है।यही नहीं वातावरण की प्रतिकूल परिस्थितियों (सूखा एंव अधिक वर्षा), गैर उपजाऊ मिट्टियो में भी कम निवेश पर रामतिल की अच्छी उपज ली जा सकती हैं। बदलते मौसम एवं  कमजोर और अनिश्चित मानसून में भी रामतिल बेहतर उपज और आर्थिक लाभ देने में सक्षम है।  वर्तमान में रामतिल की खेती भारत के  विभिन्न राज्यों  में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों  के  किसानों  द्वारा की जा रही है। अतः इसे आदिवासी प्रिय फसल माना जाता है।
                 रामतिल फसल का क्षेत्र, उत्पादन एवं निर्यात की दृष्टि से विश्व में भारत का प्रथम स्थान है। भारत में इसकी खेती लगभग 301 हजार हेक्टेयर क्षेत्र (वर्ष 2012-13) में प्रचलित है जिससे लगभग 98.9 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है। महत्वपूर्ण एवं बहुपयोनगी फसल होने के  बावजूद भी इसकी ओसत उपज अत्यन्त कम (329 किग्रा. प्रति है.) होने की वजह से भारत में इसके  रकबे में 1965-66 की तुलना में अब तक 42 प्रतिशत कमी दर्ज की गई है।  भारत में रामतिल की खेती म. प्र., ओडिसा, छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, आसाम, झारखण्ड व पश्चिम बंगाल में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में इसे 64.2 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में लगाया जाता है जिससे बर्ष 2012-13 के दरमियान मात्र 178 किग्रा./हे. औसत उपज के मान से 11.4 हजार टन उत्पादन प्राप्त हुआ। प्रदेश के  जशपुर, बलरामपुर, जगदलपुर, सरगुजा, सूरजपुर, कोन्डागांव, कोरिया, रायगढ़ ,नारायणपुर, कांकेर, कोरबा आदि जिलों  में रामतिल की खेती बहुतायत में की जा रही है।
उपयुक्त जलवायु
                रामतिल खरीफ मौसम की फसल है जिसे वर्षा पोषित परिस्थितियों में उगाया जाता है। यह एक छोटे दिनों वाला प्रकाश संवेदी पौधा है जिसकी वृद्धि एंव विकास के लिए गर्मी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। बीज अंकुरण हेतु 15-22 डिग्री से. तापमान उपयुक्त पाया गया है। बुवाई के  समय 10 डिग्री .से. से नीचे या 35 डिग्री से. से अधिक तापक्रम होने पर अंकुरण पर विपरीत असर पड़ता है। समुचित पौध वृद्धि और विकास के लिए फसल अवधि के  दौरान 20- 23 डिग्री  से. तापमान की आवश्यकता होती है। अधिक तापक्रम (30 डिग्री से. से ऊपर) पर पौध वृद्धि व या पुष्पन पर बिपरीत प्रभाव पड़ता है। इसकी खेती 1000-1300 मिमी. वर्षा वाले स्थानों में सफलतापूर्वक की जाती है परन्तु 800 मिमी से अधिक वर्षा फसल के लिए हांनिकारक होती है।
भूमि का प्रकार
          रामतिल की फसल को भूमि की अल्प उपजाऊ परिस्थितियों (कंकरीली, पथरीली व सम-सीमान्त भूमियों) में उगाया जा सकता है। परन्तु बहुत हल्की अथवा भारी मृदाएं इसकी खेती के  लिए उपयुक्त नहीं रहती क्योंकि हल्की भूमि में जल धारण क्षमता कम होती है और  भारी भूमियो  में जल भराव की समस्या रहती है। अच्छी पैदावार के लिये उत्तम जल-निकास वाली बलुई दोमट भूमि उपयुक्त मानी जाती है। उत्तम  फसल के लिए भूमि का पी.एच. मान 5.2 से 7.3 उपयुक्त पाया गया है।
खेत की तैयारी ऐसे करें

              रामतिल का बीज आकार में छोटा होता है, अतः सही बीजांकुरण के लिए ढीली एंव भुरभुरी मिट्टी का होना आवश्यक रहता है। तद्नुसार 1-2 बार खड़ी तथा आड़ी जुताई करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। गोबर खाद उपलब्ध होने पर 12-15 गाड़ी प्रति हे. के हिसाब से बुवाई के पहले खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलावें। अंतिम जुताई के समय भूमि  में क्लोरपायरीफाॅस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20-25 किलो प्रति हेक्टर की दर से मिला देने से फसल की दीमक तथा कटुवा कीट से सुरक्षा रहती है।
उन्नत किस्मों  का करें चयन
             परम्परागत बीज की अपेक्षा अधिक उपज देने वाली अखिल भारतीय समन्वित तिल-रामतिल अनुसंधान परियोजना  (आई.सी.ए.आर.), ज.ने.कृषि विश्वविद्यालय परिसर, जबलपुर द्वारा अनुशंषित रामतिल की उन्नत किस्मों  के बीज का उपयोग करना चाहिए । छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश की जलवायु के  अनुरूप उपयुक्त रामतिल की उन्नत किस्मों  का विवरण अग्र-सारिणी में प्रस्तुत है । इन किस्मों  में से मनपसंद किस्म के  बीज  नजदीकी कृषि विभाग, इं.गां.कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर,  रायपुर अथवा ज.ने.कृषि विश्वविद्यालय, अधारताल, जबलपुर से प्राप्त कर बुवाई करें।
                                        रामतिल की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्मों  के  नाम         अवधि (दिन)    उपज(क्विंटल/ है.)       तेल (%)           प्रमुख विशेषताएं
ऊटकमंड                         120-130            5.0-6.0                 40-42                      काला बीज
आई.जी.पी.-76(सह्यद्री)     100-105           5.0-5.5                 35-38        बीज काला, सम्पूर्ण भारत के लिए
जी.ए.-10                         115-120            6.0-6.5                 39-41        गहरा काला बीज
जे.एन.सी.-1                      90-100            6.5-7.0                 38-40        मध्यम बीज, सूखा सह किस्म
जे.एन.सी.-6                      95-100            6.5-7.0                 37-38        मध्यम  बीज, सूखा सह किस्म
जे.एन.एस.-9                    95-100            6.5-7.0                  38-40        काला बीज, सूखा अवरोधी किस्म
बिरसा नाइजर-1               95-100             5.5-6.0                 36-38       हल्का काला बीज
बिरसा नाइजर-2               95-100             6.0-6.5                 35-38       काला बीज, संम्पूर्ण भारत के  लिए
बी.एन.एस.-10 (पूजा-1)    95-100             6.5-7.0                 36-38       काला चमकीला बीज
गुजरात नाइजर-2               90-95             6.5-7.0                 35-38      काला बीज, संम्पूर्ण भारत के लिए 
बोआई करें उचित समय पर
               रामतिल की खेती मुख्यतः खरीफ में की जाती है परन्तु मध्य रबी या खरीफ में देर से भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। वास्तव में रामतिल शीत-प्रिय फसल है और  इसलिए सुरक्षित सिचाई की सुविधा होने पर मध्य रबी में बोई गई फसल से अधिक उपज देती है। वर्षा आश्रित फसल होने के  कारण मानसून आगमन पर इसकी बुवाई करना बेहतर  रहता है,परन्तु खरीफ में बोआई का  समय मध्य जुलाई से अगस्त के प्रथम सप्ताह एवं मध्य रबी फसल के  लिए सितम्बर माह उपयुक्त  पाया गया है। इससे पहले बोआई करने पर पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाने से उपज कम प्राप्त होती है। अधिक पैदावार के लिये उन्नत किस्म के उपचारित बीज को अगस्त के द्वितीय सप्ताह से अंतिम सप्ताह तक बोना चाहिए। देर से बोआई करने पर पुष्पावस्था व दाना बनते समय नमी की कमी के कारण उत्पादन कम मिलती है।
सही बीज दर  एंव बोआई करें कतार में 
               सामान्यतौर पर बीज दर बुवाई की विधि पर निर्भर करती है। रामतिल की शुद्ध फसल की बुआई कतारों में करने पर 5-8 कि.ग्रा. साफ एंव स्वस्थ बीज प्रति हैक्टर लगता है। छिड़काव पद्धतिसे बुवाई करने पर 7-8 कि.ग्रा. बीज का उपयोग करें। मिश्रित फसल में बीज की मात्रा मिश्रण के अनुपात पर निर्भर करती है। मृदा एवं बीज जनित रोगों  से मुक्त फसल के  लिए  बीज को फफूँदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम 5 ग्राम या ट्राइक¨डरमा विरडी 10 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर ही ब¨ना चाहिए।
                 आमतौर पर रामतिल की बोआई छिट़कवाँ विधि से की जाती है। इस विधि से बुवाई करने से बीज अंकुरण एक सार नहीं होता है जिससे खेत में प्रति इकाई पौध संख्या अपर्याप्त रह जाती है। फलस्वरूप छिटकवां विधि से उपज कम प्राप्त ह¨ती है। अतः रामतिल की बुवाई निर्धारित दूरी पर कतारों में करने से अधिक उत्पादन मिलता है। बीज आकार छोटा होने के  कारण इसे  बालू  या गोबर की खाद के चूर्ण अथवा राख (1:20 के अनुपात) में मिला कर हल के पीछे या सीड ड्रिल की सहायता से  समान रूप से बोया जा सकता है। बोआई के समय जमीन में पर्याप्त नमी रहने से अंकुरण (3-5 दिन में) एंव पौध वृद्धि अच्छी होती है। कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा दो  पौधो के मध्य 10 से.मी. की दूरी स्थापित करना चाहिए। मिट्टी के  प्रकार एवं नमीं की मात्रा  के मुताबिक  बीज को  2-3 सेमी. की गहराई पर बोना उचित रहता है। ढलानयुक्त भूमियों  में ढलान के  विपरीत कतारो  में इसकी बुवाई करना चाहिए। बोआई के 10-15 दिन बाद या पौधों  की ऊँचाई 8-10 सेमी. होने पर सघन स्थानों से पौधों की छँटाई करके अथवा खाली स्थानों पर दूसरे पौधे प्रतिरोपित  करके, अपेक्षित संख्या (3.3 लाख पौधे प्रति हेक्टर) तक पौधों का घनत्व स्थापित कर लेने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है।
फसल को चाहिए भरपूर  खुराक अर्थात संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन आवश्यक
             सामान्य तौर पर रामतिल फसल में खाद एंव उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है। परन्तु संतुलित उर्वरक उपयोग से रामतिल की अच्छी उपज ली जा सकती है। मृदा परिक्षण के आधार पर पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण किया जाना चाहिए। मृदा परिक्षण संभव नहीं हो तब बोआई के समय 20 कि.ग्रा. नत्रजन, 20 कि.ग्रा. स्फुर एवं 10 किग्रा. पोटाष प्रति हेक्टेयर  देना चाहिए। बोआई के 30 दिन बाद निंदाई के समय 20 किलो प्रति हेक्टर की दर से अतिरिक्त नत्रजन देना लाभकारी पाया गया है। उर्वरकों केा बीज की नीचे कतार में देना चाहिए। बीज क¨ पी.एस.बी. कल्चर 10 ग्राम प्रति किग्रा  बीज दर से उपचारित करके  बुवाई करने से उपज में इजाफा होता है। सल्फर युक्त उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फाॅस्फेट  अथवा 20-30 किग्रा, सल्फर प्रति हेक्टर देने से दाना उपज एवं बीज में तेल की मात्रा में बढ़त होती है।
खरपतवारों को रखें काबू में
                   खरीफ की फसल होने के कारण खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है। रामतिल की अधिक उपज लेने के लिए 1-2 बार आवश्यकतानुसार निंदाई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। बोने के 15-20 दिन पश्चात् पौध विरलन के समय प्रथम निंदाई-गुड़ाई करना चाहिए। कतारों के बीच में देशी हल चलाकर यह कार्य जल्दी व कम लागत में किया जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन पश्चात पुनः निदाई-गुड़ाई संपन्न करें। निराई-गुड़ाई संभव न हो  तो  रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है। इसके  लिए पेन्डीमेथालिन 1 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में घोलकर बौनी के  तुरन्त बाद परन्तु अंकुरण पूर्व छिड़काव करें। रामतिल में कहीं कहीं अमरबेल नामक घातक खरपतवार की समस्या देखने को मिलती है। इसके लिए बीज केा अच्छी तरह (1 मिमी. छिद्रयुक्त छलनी में) छान कर साफ करके बोआई करना चाहिए अथवा रामतिल बीज को  10 प्रतिशत नमक के  घोल में डुबाने से अमरबेल के  बीज ऊपर तैर जाते है जिन्हे निकालकर बीज को  2-3 बार साफ पानी में धोकर एवं छाया में सुखाकर बुवाई करें। खेत में कहीं-कहीं अमरबेल का प्रकोप होने पर उसे हाथ से उखाड़कर नष्ट कर दें। फसल चक्र अपनावें।
जीवन रक्षक सिंचाई से बढ़ेगी उपज
    सामान्यतौर पर रामतिल सूखा सहन  करने वाली फसल है। खरीफ मौसम की फसल होने के कारण रामतिल को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। परन्तु फसल में फूल व दाना बनते समय खेत में  नमी के अभाव से उपज में कमी होती है। अतः लम्बे सूखे  की स्थिति में 1-2 जीवन रक्षक सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। अर्द्ध -रबी फसल में आवश्यकतानुसार 1-2 सिंचाई पुष्पावस्था व दाना भरते समय करने से उपज में आशातीत बड़ोत्तरी होती है।
फसल पद्धति हेतु  आदर्श फसल
               रामतिल को बहुधा खरीफ अथवा विलम्बित खरीफ फसल के  रूप में बोया जाता है। अनेक स्थानों  में रामतिल से पूर्व में शीघ्र तैयार होने वाली फसलें यथा लोबिया अथवा ग्वारफली इस प्रकार से लगाएं जिससे अगस्त तक रामतिल की बुवाई की जा सके । रामतिल को सोयाबीन, ज्वार, उड़द और मूँग के साथ अन्तर्वर्तीय फसल (2:2 अनुपात) के रूप में उगाने की अनुशंसा की गई है। छत्तीसगढ़ की हल्की भूमियों में इसे मूँगफली, रागी, कोदों या कुटकी के साथ (2:2 या 4:2 अनुपात)  अन्तर्वर्तीय फसल लाभकारी रहती है।
हाँनिकारक कीटों पर नियंत्रण
             इस फसल पर प्रमुख रूप से समतिल इल्ली, कटुआ, बिहारी बालदार इल्ली आदि कीटो  का प्रकेाप होता है। इन कीटों की रोकथाम के लिए क्लोररपाइरीफाॅस 20 ई.सी. 1.5 मि.ली. प्रति लीटर अथवा क्विनाॅलफाॅस 25 ईसी 1.5 मिली. प्रति लीटर जल के  हिसाब से छिड़काव करना प्रभावकारी पाया गया है। इस फसल के फूलों का मधुमक्खियां रसपान  करती है जिससे परागण की क्रिया संपन्न हो जाती है। अतः कीटनाशकों का उपयोग सीमित एंव सावधानीपूर्वक करना चाहिए तथा छिड़काव शाम के समय करना अच्छा रहता है।
रोग मुक्त रहे फसल
                 फसल में पत्ती धब्बा तथा चूर्णी फफूँद रोग मुख्यतः लगता है। चूर्णी फफूंद रोग  में पत्तियों पर सफेद चूर्ण जम जाता है। इसके उपचार के लिये रोग के  लक्षण दिखने पर  0.2 प्रतिशत घुलनशील सल्फर या बाविस्टीन (0.1 प्रतिशत) या केराथेन एक ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें। पत्ती धब्बा रोग के नियंत्रण हेतु बोआई पूर्व थाइरम 3 ग्राम प्रति किल¨ बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए। खड़ी फसल में धब्बा रोग  उपचार हेतु बाविस्टीन (0.1 प्रतिशत) तथा  डाइथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत) का घोल बनाकर 15 दिन के  अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।
समय पर करें कटाई एवं गहाई
                 रामतिल की फसल लगभग 95-105 दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब फसल की पत्तियाँ पीली पड़कर सूखने लगे और मुंडक भूरे-काले पड़ने लगे, फसल की कटाई कर लेना चाहिए। कटाई में देर करने पर बीज झड़ने का डर रहता है। कटाई हँसिया से की जाती है। कटाई पश्चात् फसल के गट्ठे बनाकर खलिहान में 8-10 दिन सुखाने के  पश्चात फसल की गहाई डंडों से पीटकर या फिर बैलों की दाय चलाकर की जाती है।
उपज एंव उचित भण्डारण
                  गहाई के पश्चात् ओसाई  कर बीज साफ कर लिया जाता है। बीज को धूप में ( 8 प्रतिशत नमीं स्तर तक) सुखाकर बोरों में भरकर उचित उचित स्थान (नमी रहित) पर भण्डारण करना चाहिए। रामतिल की उपज खेती की विधियों पर निर्भर करती है। उपरोक्त सस्यविधियों  के  अनुशरण से अनुकूल मौसम में रामतिल की शुद्ध फसल से 5.5-6.5 क्विंटल तथा मिश्रित फसल  से 1.5-2.0 क्विंटल दाना उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो सकती है।
अतरिक्त  लाभ के  लिए करें मधुमक्खी पालन
           रामतिल की फसल में 45-80 दिन तक बड़ी तायदाद में आकर्षित रंगीन पुष्प खिलते है जिससे वातावरण व मन प्रफुल्लित हो  जाता है। यही वजह है जिससे मधुमक्खी पालन के  लिए रामतिल एक आदर्श फसल समझी जाती है। मधुमक्खी फसल के  परागण में सहायक होती है जिससे 10-20 प्रतिशत उपज में बढ़ो त्तरी होने के  साथ-साथ मधुमक्खी पालन से लगभग 1500-2000 रूपये मूल्य का मधुरस अतिरिक्त लाभ के  रूप में प्राप्त होता है।
आर्थिक लाभ
              रामतिल की खेती से यदि 5 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर भी उपज प्राप्त होती है तो  बाजार कीमत 4,000 रूपये प्रति क्विंटल की दर से बेचने पर 20,000 रूपये प्रति हेक्टेयर सकल आय प्राप्त होगी। यदि इसकी खेती में 7,000 रूपये की लागत आती है तो  हमें 13000 रूपये रामतिल की उपज से एवं 1,500 रूपये मधुमक्खी पालन से अर्थात कुल मिलाकर 14,500 रूपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध  मुनाफा प्राप्त हो  सकता है।
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